ढोल की गर्जना, नगाड़ों की अंतर्मन को झंकृत करती टंकार। धूणी (एक किस्म का अग्निकुंड) के चारों तरफ दुलैंच यानी विशेष गद्दी में बैठे तपस्वियों के शरीर पर आ ान के साथ लोक देवताओं का अवतरण। यही है कौतुहल से भरी देवभूमि की पारंपरिक व धार्मिक अनुष्ठान से जुड़ी बैसी, जो देव अवतरण की अलौकिक गाथा और उत्तराखंडी सांस्कृतिक विरासत को खुद में समेटे है। दरअसल, केदारखंड व मानसखंड के लोक देवताओं के आ ान की पौराणिक परंपरा बैसी का आयोजन श्रावण मास में ही होता है। चूंकि देवभूमि के समस्त लोक देवता मसलन, न्याय देवता गोलज्यू महाराज, गंगनाथ, शैम आदि का निवास स्थान हिमालय माना जाता है, लिहाजा साझ की गोधुली बेला पर दास व डंगरिए (देवदूतों के रूप) ढोल व नगाड़ों की मिश्रित गर्जना व टंकार की झंकृत करने वाली धुन के बीच वीर गाथा के जरिए आ ान करते हैं। खास प्रांगण पर चारों तरफ लोक देवताओं के अवतरण को दुलैंच यानी विशेष गद्दी बिछी होती है। इसमें अक्षत, पुष्प एवं भेंट रखी जाती है। वीर रस की हुंकार जब चरम पर पहुंचती है तो देवों का अवतरण दुलैंच पर बैठे तपस्वियों के शरीर पर होने लगता है। खास बात है, दास व डंगरिए इस बीच लोक देवताओं के शौर्य, पराक्रम, अन्याय के खिलाफ जंग, कठिन परिश्रम आदि का बखान करते हैं। देवअवतरण पूर्ण होने पर फिर दौर शुरू होता दीन-दुखियों की फरियाद सुनने का। आसमान को छूती लपटों वाली धुणी में तप कर लाल हुआ चिमटे को लोक देवता का अवतारी चाट कर या शरीर पर पीट शांत करता है। यह सब हैरतअंगेज होता है। अंगारों पर चलना और उन्हें निगल जाना तो और भी भयंकर। मगर इससे अवतारी को तनिक भी क्षति नहीं पहुंचती। 22 दिन की घोर तपस्या यानी बैसी के अंतिम दिन लोक देवताओं को पुन: हिमालय के लिए रवाना किया जाता है।
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