Wednesday, April 15, 2009

1971 लोकसभा चुनाव में लगा पहली बार वोट डालने वाले मतदाताओं की अंगुली पर निशान

पुराने समय में लोग सेवा भाव के साथ राजनीति में आते थे। तब आज के जैसी आपाधापी भी नहीं थी। चुनाव में सबकी नीयत साफ रहती और मतदान भी पूरी ईमानदारी से होता। लोग केंद्र पर आते और अपना वोट डाल कर लौट जाते। धीरे धीरे प्रत्याशियों और उनके समर्थकों की नीयत में बेईमानी समाने लगी। लोगों ने अपना वोट डालने के बाद दूसरे मतदाताओं के नाम से भी वोट डालना शुरू कर दिया। इस बदनियती से निपटने को वोट डाल चुके मतदाताओं की पहचान के लिये उनकी अंगुली पर निशान लगाया जाने लगा।

इससे पहले तक मतदाता सूचियों में दर्ज नाम के आधार पर ही वोट पड़ते थे। मतदान कर्मी सूची में वोट डालने वाले मतदाता के नाम पर निशान लगा लेते थे। जब लोगों ने बेईमानी कर दूसरों के वोट डालना शुरू किया तो मतदान केंद्रों पर झगड़े होने लगे। इन सब मुश्किलों से बचने और वोट डाल चुके मतदाताओं को पहचानने के लिये स्याही से निशान लगाने का चलन शुरू हुआ।

पांचवी लोकसभा के लिये वर्ष 1971 में कराये गये चुनाव में पहली बार वोट डालने वाले मतदाताओं की अंगुली पर निशान लगाया गया। इसके बाद बेईमानी करने वाले मतदाताओं ने मतदान केंद्र पर लगने वाले निशान को मिटाने के तरीके खोज लिये तो निशान लगाने के लिये अमिट स्याही का इस्तेमाल होने लगा। मतदाता की अंगुली पर निशान लगाये जाने से दोबारा वोट डालने वालों पर तो अंकुश लगा, मगर दूसरों के वोट डाल देने की शिकायतों में कमी नहीं आयी। इससे मतदाता के अधिकारों का हनन भी होता था।

टेंडर वोट
मतदाताओं के वोट डालने के अधिकार को सुरक्षित रखने के लिये टेंडर वोट का तरीका अपनाया गया। जिन मतदाताओं का वोट कोई और डाल जाता वे अपना वोट टेंडर कर सकते हैं। ये वोट लिफाफे में अलग रखा जात और इनकी गणना भी सारे वोटों की गिनती के बाद जरूरत पड़ने पर ही होती है।

पांचवी लोकसभा के चुनाव से शुरू हुआ मतदाता की अंगुली पर निशान लगाने का चलन आज भी जारी है। इसमें बदलाव हुआ है तो सिर्फ इतना कि अब वोट डालने के बाद लगाये गये निशान को मिटाना आसान नहीं रहा।

Source: jagran.com

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